Tuesday, September 30, 2014

Jawaharlal Nehru : THE LAST MUGHAL... [ PART 1 ]

१ ऑक्टोबर२०१४

अभी थोड़े समय से आइडिआ कम्पनी का एक विज्ञापन हमारे सब के टेलीविजन पर आ रहा है। ' नो उल्लू बनाविंग- नो उल्लू बनाविंग। ' इस विज्ञापन में अलग अलग तरीको से लोग कैसे उल्लू बनाते है वो दिखाते है। लेकिन हम भारतवासी कैसे तो पिछले १००० साल से एक या दूसरे तरीके से उल्लू बनते आ रहे है। पहले मुगलो ने बनाया फिर अंग्रेजो ने। और पिछले ६० सालो में भी हमें उल्लू ही बनाया गया है एक या दूसरे तौर पर। जिस देश की आज़ादी की नीव ही धोखे और ब्लैकमेल पर हो उस देश के लोग उससे ज्यादा की अपेक्षा भी कैसे करे। 

वैसे तो बहोत से भारतवासी इस बारे में जानते है। पर कोई इस विषय में कुछ बोलना पसंद नहीं करता। क्युकी हम करीब हज़ार साल तक गुलाम रहे है। हमने पहले मुग़ल की गुलामी की बाद में अंग्रेजो की और उसके बाद फिर एकबार हमने ६० साल तक मुग़ल की गुलामी की है।  

आश्चर्य हुआ न यह सुनकर की हमने अंग्रेजो के बाद मुग़ल की गुलामी की है। मुझे भी कुछ ऐसा ही महसूस हुआ था जब मैंने इसके बारे में बाते सुनी थी।  लेकिन मैं औरो की तरह सिर्फ बाते सुनकर बैठा नहीं रहा। मैंने इस बारे में रिसर्च शुरू की। तब मुझे थोड़ा कुछ जानने को मिला। उतना जो मेरे पत्रकार दिमाग को जकजोरने के लिए काफी था। और वो मुग़ल है नेहरू-गांधी परिवार। 
The Mughals.

उस समय तक मैं इतना जान चूका था की जवाहरलाल नहेरुहमारे थोपे गए प्रथम प्रधान मंत्री थे। और उनके वंश के बारे में उनके पिता मोतीलाल नेहरू और दादा गंगाधर कॉल से आगे की कोई भी माहिती उपलब्ध नहीं है। यहाँ तक की नेहरु ने अपने कार्यकाल में लिखे हुए सत्तावर दस्तावेजउनके समय में तैयार की गई रिपोर्ट्स और उनके आदेशो को भी टॉप सीक्रेट बना के रखा गया है और जनता की पहुंच से बहार रखा गया है। 

यह बात है करीब २ हफ्ते पहले की। मैं थोड़ा मायूस हुआ की, खुद के देश में खुद के देश के प्रधानमंत्री की सच्चाई जानने और जांचने में मैं असमर्थ था। अचानक मुझे मेरे गुरुओ की बात याद आई (यह बात और है की मैंने उनको कभी नहीं बताया की मैं उनको गुरु मानता हुपर मैं उनसे काफी सीखा हु।) वो हमेशा एक बात कहते थे की अगर कही पर अटक जाओ तो एकदम शुरुआत से शुरू करो। और मेरे दिमाग में अचानक से इक ख्याल कौंधा। मेरे जैसे किसी ने अगर कुछ खोजने की या लिखने की कोशिश की होगी तो उसे या उसके काम को दबाने की कोशिश तो की ही गई होगी। और बहुत हद तक संभव है की उनका काम या कोई बुक भारत में न पब्लिश होकर किसी और देश में पब्लिश हुई हो। 

बस फिर क्या थामैंने नेहरू और उसके खानदान का उल्लेख करने वाला हर मटीरियल पढ़ डाला। हालांकि उतना ही पढ़ा है जितना इंटरनेट पर मौजूद था। फिर मेरे लिए बहुत आसन था २ + २ जोड़ना। 

लेकिन यह इतना भी आसान नहीं है। हर एक नई बात जो मैंने इस मुगलो के आखरी वंशजो के बारे में जानी उस हर बात ने मेरी आत्मा के हजारो टुकड़े कियेमेरी आत्मा को डंख दिया है। यह लिखते वक्त भी मेरी आँखों में पानी भर आ रहा है। कैसे मेरे भोले देशवासिओ को मुर्ख बनाकर एक मुग़ल परिवार ने मेरे देश ओ तीन हिस्सों में बात दिया। फिर भी आज तक उनसे बड़ा कोई राष्ट्रभक्त है ही नहीं ऐसे जताते रहे है। 
  
तो कहानी शुरू होती है १८५७ में। जब अंग्रेजो ने मोटे तौर पर दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया था। कब्जे के तुरंत बाद अंग्रेजो ने यह फरमान जारी किया की हर मुग़ल अधिकारी और सल्तनत में काम करने वालो को मर दिया जाये।  इस काम के लिए खास तौर पर सीखो और गोरखाओ को नियुक्त किया गया था।  क्युकी वही लोग इस काम को बखूबी अंजाम दे सकते थे। ऐसा फरमान जारी करने के का कारण था की अंग्रेजो ने हमारे इतिहास से बहुत कुछ सीखा था और उस सिख में एक बात यह भी थी की कभी भी मुगलो पर भरोसा मत करो। जैसे  हिन्दू राजाओ ने मुस्लिम घुसपैठीओ पर रहम दिखा कर गलती की थी। अंग्रेज जानते थे की, मुग़ल कभी भी फिर से सर उठा सकते थे। तो ऐसे फरमान के बाद मुग़ल अधिकारिओ में भगदड़ मच गई। कई मुग़ल अधिकारी दिल्ली के आसपास के इलाको में भाग गए। उनमे से एक परिवार था उस समय के दिल्ली के कोतवाल ग्यासुदीन गाजी उर्फ़ गंगाधर नेहरू का। यहाँ पर यह बताना जरुरी समजता हु की ग्यासुदीन गाज़ी का मतलब होता है, "काफिरो का कातिल।" अंग्रेजो से बचता हुआ ग्यासुदीन आगरा के रास्ते अलाहाबाद की और चल पड़ा था। स्वयं जवाहरलाल ने इस बारे में अपनी आत्मकथा में लिखा है की, " जब मेरे दादा दिल्ली से आगरा की और जा रहे थे उस समय उन्हें अंग्रेज अधिकारिओ ने रोक था। तब उन्होंने वो मुस्लिम न होकर कश्मीरी पंडित होने का हवाला दिया था। फिर भी हमें यह सवाल होता है की, गाज़ी से नेहरू का उपनाम कैसे हो गया।  इस बारे में एक लेखक अपनी किताब में लिखते है की, ग्यासुदीन गाज़ी का परिवार दिल्ली में लाल किल्ले के पास आई नहर के पास रहता था। जो की उस समय मुग़ल अधिकारिओ और अमीर मुस्लिमो का इलाका माना जाता था। इसलिए गयासुदिन ने दिल्ली से भागते वक्त अपना नाम गंगाधर और उपनाम नेहरू (नेहर वाले) रख दिया था। [1] 

 एक पुस्तक से इतना जानने के इस बारे मे और जानने की चटपटी लगी और मैंने और जाँच पड़ताल करने की सोची। तो मैंने इंटरनेट पर पड़ताल की। इस पड़ताल से मुझे काफी सारा साहित्य और काफी सारे ब्लॉग मिले जिसने की मेरे इस पोस्ट लिखने में काफी मदद की। स्वयं जवाहरलाल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है की " आगरा जाते समय मेरे दादा को ब्रिटिशरो ने रोका तब उन्होंने कहा था की हम मुस्लमान नहीं है। इस पर ब्रिटिशरो ने उसके पर्शियन दिखाव के बारे में पूछा तो दादा ने कश्मीरी पंडित होने का हवाला दिया और सिपाइओ ने हमें आगे जाने दिया था। जवाहरलाल की बहन कृष्णा ने भी एक जगह पे लिखा है की " उनके दादा मुग़ल सल्तनत में कोतवाल थे।" जिससे भी काफी कुछ साफ़ हो जाता है।[2]  

अचानक मेरे दिमाग में आया की क्यों भारत सरकार ने अपने परम पूज्य प्रथम प्रधानमंत्री के घर को स्मारक में नहीं तब्दील किया?  इस बात की खोजबीन करते हुए मैंने जो जाना उससे मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआक्युकी इतना सच के बाद यह मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं थी। यहाँ तक की यह भी जानने को मिला की मोतीलालअपनी पहली बीवी की मोत के बाद कश्मीर गया था। वह  उसने एक कश्मीरी ब्राह्मण लड़की थुस्सू को फसा कर शादी कर ली और उसका नाम बदलकर स्वरुप रानी रख दिया। स्वरुप रानी को अपने साथ अलाहाबाद लाने के बाद तुरंत ही मोतीलाल ने उसको मुबारक अली को तोहफे के रूप में दे दिया। मोबारक अली उस ज़माने में अलाहाबाद का जानामाना वकील था। जो की मोतीलाल को भविष्य में अमीर बनाने में महत्वपूर्ण किरदार निभाने वाला था। मोतीलाल उसके यहाँ नौकरी करता था।  मोबारक अली ने स्वरुप रानी को अपने मौज शौख के लिए अपने पास 'इरशाद मंजिलमें रख लिया।  जब स्वरुप रानी प्रेग्नेंट हुई तब मोबारक अली ने मोतीलाल को उसे वहा से ले जाने को कहा। मोतीलाल ने डिलिवरी तक स्वरुप रानी को 'इरशाद मंज़िलरखने की मिन्नत की क्युकी वह तो एक कोठे पर रहता था। लेकिन मोबारक अली ने ऐसा करने से मना कर दिया।  क्युकी शरीया के कानून के मुताबिक स्वरुप रानी उसकी बीवी न होने के बावजूद अगर उसके घर में बच्चे को जन्म देती तो मोबारक अली की मिलकियत पर उस बच्चे का भी बराबर हक़ बन जाता। खैर मोतीलाल स्वरुप रानी को अपने साथ कोठे पर लाया। जहा पे जवाहरलाल का जन्म हुआ। 

उसके बाद ओढ़ के नवाब को इस बात का पता चला की एक मुस्लमान का बच्चा कोठे पर पल रहा है।  तो वह उसे अपने महल में लेकर आया। जवाहरलाल १० साल तक पला और उसकी सुन्नत भी वही पर हुई। बाद में ओढ़ के नवाब ने ही उसे पर्शियन और उर्दू का शिक्षण भी उसने वही से पाया। जैसे की वो कहते है की कश्मीरी पंडित है लेकिन वो संस्कृत का एक भी शब्द नहीं जानते थे। उसके आगे जवाहर लाल को पढ़ने के लिए ट्रिनिटी कॉलेजइंग्लैंड भेजा गया।  स्वाभाविक था की उसका खर्च भी ओढ़ के नवाब ने ही उठाया था। 

आगे की घटनाओ और इस परिवार के बारे में और जानने की इच्छा हो तो कमेंट करे। वैसे मैं बहुत जल्द इसका दूसरा पार्ट लिखने वाला हु। 



 [1] The 13th volume of the “Encyclopaedia of Indian War of Independence”(ISBN:81-261-3745-9) by M. K. Singh

 [2]  A lamp for India: the story of madame pandit






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