Tuesday, September 30, 2014

Jawaharlal Nehru : THE LAST MUGHAL... [ PART 1 ]

१ ऑक्टोबर२०१४

अभी थोड़े समय से आइडिआ कम्पनी का एक विज्ञापन हमारे सब के टेलीविजन पर आ रहा है। ' नो उल्लू बनाविंग- नो उल्लू बनाविंग। ' इस विज्ञापन में अलग अलग तरीको से लोग कैसे उल्लू बनाते है वो दिखाते है। लेकिन हम भारतवासी कैसे तो पिछले १००० साल से एक या दूसरे तरीके से उल्लू बनते आ रहे है। पहले मुगलो ने बनाया फिर अंग्रेजो ने। और पिछले ६० सालो में भी हमें उल्लू ही बनाया गया है एक या दूसरे तौर पर। जिस देश की आज़ादी की नीव ही धोखे और ब्लैकमेल पर हो उस देश के लोग उससे ज्यादा की अपेक्षा भी कैसे करे। 

वैसे तो बहोत से भारतवासी इस बारे में जानते है। पर कोई इस विषय में कुछ बोलना पसंद नहीं करता। क्युकी हम करीब हज़ार साल तक गुलाम रहे है। हमने पहले मुग़ल की गुलामी की बाद में अंग्रेजो की और उसके बाद फिर एकबार हमने ६० साल तक मुग़ल की गुलामी की है।  

आश्चर्य हुआ न यह सुनकर की हमने अंग्रेजो के बाद मुग़ल की गुलामी की है। मुझे भी कुछ ऐसा ही महसूस हुआ था जब मैंने इसके बारे में बाते सुनी थी।  लेकिन मैं औरो की तरह सिर्फ बाते सुनकर बैठा नहीं रहा। मैंने इस बारे में रिसर्च शुरू की। तब मुझे थोड़ा कुछ जानने को मिला। उतना जो मेरे पत्रकार दिमाग को जकजोरने के लिए काफी था। और वो मुग़ल है नेहरू-गांधी परिवार। 
The Mughals.

उस समय तक मैं इतना जान चूका था की जवाहरलाल नहेरुहमारे थोपे गए प्रथम प्रधान मंत्री थे। और उनके वंश के बारे में उनके पिता मोतीलाल नेहरू और दादा गंगाधर कॉल से आगे की कोई भी माहिती उपलब्ध नहीं है। यहाँ तक की नेहरु ने अपने कार्यकाल में लिखे हुए सत्तावर दस्तावेजउनके समय में तैयार की गई रिपोर्ट्स और उनके आदेशो को भी टॉप सीक्रेट बना के रखा गया है और जनता की पहुंच से बहार रखा गया है। 

यह बात है करीब २ हफ्ते पहले की। मैं थोड़ा मायूस हुआ की, खुद के देश में खुद के देश के प्रधानमंत्री की सच्चाई जानने और जांचने में मैं असमर्थ था। अचानक मुझे मेरे गुरुओ की बात याद आई (यह बात और है की मैंने उनको कभी नहीं बताया की मैं उनको गुरु मानता हुपर मैं उनसे काफी सीखा हु।) वो हमेशा एक बात कहते थे की अगर कही पर अटक जाओ तो एकदम शुरुआत से शुरू करो। और मेरे दिमाग में अचानक से इक ख्याल कौंधा। मेरे जैसे किसी ने अगर कुछ खोजने की या लिखने की कोशिश की होगी तो उसे या उसके काम को दबाने की कोशिश तो की ही गई होगी। और बहुत हद तक संभव है की उनका काम या कोई बुक भारत में न पब्लिश होकर किसी और देश में पब्लिश हुई हो। 

बस फिर क्या थामैंने नेहरू और उसके खानदान का उल्लेख करने वाला हर मटीरियल पढ़ डाला। हालांकि उतना ही पढ़ा है जितना इंटरनेट पर मौजूद था। फिर मेरे लिए बहुत आसन था २ + २ जोड़ना। 

लेकिन यह इतना भी आसान नहीं है। हर एक नई बात जो मैंने इस मुगलो के आखरी वंशजो के बारे में जानी उस हर बात ने मेरी आत्मा के हजारो टुकड़े कियेमेरी आत्मा को डंख दिया है। यह लिखते वक्त भी मेरी आँखों में पानी भर आ रहा है। कैसे मेरे भोले देशवासिओ को मुर्ख बनाकर एक मुग़ल परिवार ने मेरे देश ओ तीन हिस्सों में बात दिया। फिर भी आज तक उनसे बड़ा कोई राष्ट्रभक्त है ही नहीं ऐसे जताते रहे है। 
  
तो कहानी शुरू होती है १८५७ में। जब अंग्रेजो ने मोटे तौर पर दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया था। कब्जे के तुरंत बाद अंग्रेजो ने यह फरमान जारी किया की हर मुग़ल अधिकारी और सल्तनत में काम करने वालो को मर दिया जाये।  इस काम के लिए खास तौर पर सीखो और गोरखाओ को नियुक्त किया गया था।  क्युकी वही लोग इस काम को बखूबी अंजाम दे सकते थे। ऐसा फरमान जारी करने के का कारण था की अंग्रेजो ने हमारे इतिहास से बहुत कुछ सीखा था और उस सिख में एक बात यह भी थी की कभी भी मुगलो पर भरोसा मत करो। जैसे  हिन्दू राजाओ ने मुस्लिम घुसपैठीओ पर रहम दिखा कर गलती की थी। अंग्रेज जानते थे की, मुग़ल कभी भी फिर से सर उठा सकते थे। तो ऐसे फरमान के बाद मुग़ल अधिकारिओ में भगदड़ मच गई। कई मुग़ल अधिकारी दिल्ली के आसपास के इलाको में भाग गए। उनमे से एक परिवार था उस समय के दिल्ली के कोतवाल ग्यासुदीन गाजी उर्फ़ गंगाधर नेहरू का। यहाँ पर यह बताना जरुरी समजता हु की ग्यासुदीन गाज़ी का मतलब होता है, "काफिरो का कातिल।" अंग्रेजो से बचता हुआ ग्यासुदीन आगरा के रास्ते अलाहाबाद की और चल पड़ा था। स्वयं जवाहरलाल ने इस बारे में अपनी आत्मकथा में लिखा है की, " जब मेरे दादा दिल्ली से आगरा की और जा रहे थे उस समय उन्हें अंग्रेज अधिकारिओ ने रोक था। तब उन्होंने वो मुस्लिम न होकर कश्मीरी पंडित होने का हवाला दिया था। फिर भी हमें यह सवाल होता है की, गाज़ी से नेहरू का उपनाम कैसे हो गया।  इस बारे में एक लेखक अपनी किताब में लिखते है की, ग्यासुदीन गाज़ी का परिवार दिल्ली में लाल किल्ले के पास आई नहर के पास रहता था। जो की उस समय मुग़ल अधिकारिओ और अमीर मुस्लिमो का इलाका माना जाता था। इसलिए गयासुदिन ने दिल्ली से भागते वक्त अपना नाम गंगाधर और उपनाम नेहरू (नेहर वाले) रख दिया था। [1] 

 एक पुस्तक से इतना जानने के इस बारे मे और जानने की चटपटी लगी और मैंने और जाँच पड़ताल करने की सोची। तो मैंने इंटरनेट पर पड़ताल की। इस पड़ताल से मुझे काफी सारा साहित्य और काफी सारे ब्लॉग मिले जिसने की मेरे इस पोस्ट लिखने में काफी मदद की। स्वयं जवाहरलाल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है की " आगरा जाते समय मेरे दादा को ब्रिटिशरो ने रोका तब उन्होंने कहा था की हम मुस्लमान नहीं है। इस पर ब्रिटिशरो ने उसके पर्शियन दिखाव के बारे में पूछा तो दादा ने कश्मीरी पंडित होने का हवाला दिया और सिपाइओ ने हमें आगे जाने दिया था। जवाहरलाल की बहन कृष्णा ने भी एक जगह पे लिखा है की " उनके दादा मुग़ल सल्तनत में कोतवाल थे।" जिससे भी काफी कुछ साफ़ हो जाता है।[2]  

अचानक मेरे दिमाग में आया की क्यों भारत सरकार ने अपने परम पूज्य प्रथम प्रधानमंत्री के घर को स्मारक में नहीं तब्दील किया?  इस बात की खोजबीन करते हुए मैंने जो जाना उससे मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआक्युकी इतना सच के बाद यह मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं थी। यहाँ तक की यह भी जानने को मिला की मोतीलालअपनी पहली बीवी की मोत के बाद कश्मीर गया था। वह  उसने एक कश्मीरी ब्राह्मण लड़की थुस्सू को फसा कर शादी कर ली और उसका नाम बदलकर स्वरुप रानी रख दिया। स्वरुप रानी को अपने साथ अलाहाबाद लाने के बाद तुरंत ही मोतीलाल ने उसको मुबारक अली को तोहफे के रूप में दे दिया। मोबारक अली उस ज़माने में अलाहाबाद का जानामाना वकील था। जो की मोतीलाल को भविष्य में अमीर बनाने में महत्वपूर्ण किरदार निभाने वाला था। मोतीलाल उसके यहाँ नौकरी करता था।  मोबारक अली ने स्वरुप रानी को अपने मौज शौख के लिए अपने पास 'इरशाद मंजिलमें रख लिया।  जब स्वरुप रानी प्रेग्नेंट हुई तब मोबारक अली ने मोतीलाल को उसे वहा से ले जाने को कहा। मोतीलाल ने डिलिवरी तक स्वरुप रानी को 'इरशाद मंज़िलरखने की मिन्नत की क्युकी वह तो एक कोठे पर रहता था। लेकिन मोबारक अली ने ऐसा करने से मना कर दिया।  क्युकी शरीया के कानून के मुताबिक स्वरुप रानी उसकी बीवी न होने के बावजूद अगर उसके घर में बच्चे को जन्म देती तो मोबारक अली की मिलकियत पर उस बच्चे का भी बराबर हक़ बन जाता। खैर मोतीलाल स्वरुप रानी को अपने साथ कोठे पर लाया। जहा पे जवाहरलाल का जन्म हुआ। 

उसके बाद ओढ़ के नवाब को इस बात का पता चला की एक मुस्लमान का बच्चा कोठे पर पल रहा है।  तो वह उसे अपने महल में लेकर आया। जवाहरलाल १० साल तक पला और उसकी सुन्नत भी वही पर हुई। बाद में ओढ़ के नवाब ने ही उसे पर्शियन और उर्दू का शिक्षण भी उसने वही से पाया। जैसे की वो कहते है की कश्मीरी पंडित है लेकिन वो संस्कृत का एक भी शब्द नहीं जानते थे। उसके आगे जवाहर लाल को पढ़ने के लिए ट्रिनिटी कॉलेजइंग्लैंड भेजा गया।  स्वाभाविक था की उसका खर्च भी ओढ़ के नवाब ने ही उठाया था। 

आगे की घटनाओ और इस परिवार के बारे में और जानने की इच्छा हो तो कमेंट करे। वैसे मैं बहुत जल्द इसका दूसरा पार्ट लिखने वाला हु। 



 [1] The 13th volume of the “Encyclopaedia of Indian War of Independence”(ISBN:81-261-3745-9) by M. K. Singh

 [2]  A lamp for India: the story of madame pandit






Thursday, September 25, 2014

"MAKE IN INDIA" THE LIONS STEP...

MAKE IN INDIA के उद्घाटन समारोह में प्रधानमंत्री और शेर। 


आज भारत के प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने फिर से एक बार हिंदुस्तान को सोने की चिड़िया बनाने की तरफ एक कदम उठाया है। जिसे की उन्होंने शेर का कदम बताया है, जिसका मतलब होता है की एक बार आगे बढे तो पीछे मुड़ने का सवाल ही नहीं। 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने २५ सितम्बर को एक मिशन एक स्वप्न का विमोचन किया जिसे उन्होंने Make in India का नाम दिया है। इस सपने के तहत भारत को मेंयुफक्चर हब बनाने की बात रखी गई है। इस समारोह लिए मोदी ने ३० देशो की ३००० कंपनियों को कार्यक्रम के लिए आमंत्रित किया था। इस कार्यक्रम में जहा भारत के बड़े उद्योगपति हाजिर थे वही कई विदेशी कंपनियो के सीईओ भी हाजिर थे। जिन्होंने भारत में व्यापर को लेकर काफी उत्साह दिखाया.

नरेन्द्र मोदी ने अपने वक्तव्य में कहा की, भारत को सोने की चिड़िया माना जाता था। लेकिन जब दुनिया में औद्योगिक क्रांति हो रही थी और दुसरे देश इस क्रांति में विकास के कदम बढ़ा रहे थे तब भारत इसमें पिछड़ गया था। क्योंकी भारत उस वक्त गुलाम देश था। आज फिर से एक बार विश्व में औद्योगिक चेतना का संचार हुआ है और इस बार पुरे विश्व ने एशिया की और अपनी निगाहे की है। हमें उनका ध्यान भारत की और आकर्षित करना है। और भारत को फिर से एक बार उत्पादन का बादशाह बनाना है.

दुनिया कल के मंगलयान प्रोजेक्ट की सफलता के चलते भारत की प्रतिभा का लोहा फिर से एक बार मान चूका है। यह वही भारत है जिसने विश्व को शून्य दिया। यह वही भारत है जिसने विश्व को कपडा पहनना सिखाया। मुझे नहीं लगता अब कोई मेरे देशवासियो को भूखा-नंगा कहने की हिम्मत कर पाएगा। 


इसी मौके पर में इतिहास का कुछ हवाला देना चाहता हु। कृपया ध्यान से पढ़े। हमने आज तक बहोत बार सुना होगा की हमारा देश सोने की चिड़िया के नाम से जाना जाता था। कुछ सारांश विदेशी इतिहासकारो के भारत के बारे में लिखे गए साहित्यों और प्रवचनों से.

१.एक अंग्रेज थॉमस बेब मैकाले(टी.बी. मैकाले) जिसका की पुरे विश्व में इतिहासकार के तौर पर बहोत मान सन्मान है, वे भारत में आये और करीब १७ साल भारत में रहे। उन्होंने पुरे भारत में भ्रमण किया और वापस गए। उसके बाद इंग्लेण्ड की संसद में २ फरवरी १८३५ को इसने भारत के बारे में कहा की “ मैं भारत के उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम मतलब हर जगह गया हु, पर मैंने वह ना तो कोई चोर देखा ना ही कोई भिखारी। भारत में इतना धन इतनी समृध्धि है कि इन्हें गुलाम बनाना मुश्किल है, मैं जिस किसी के घर में गया वहां सोने-चांदी के सिक्को का ढेर ऐसे लगा रहता है, जैसे गेहूँ चने का ढेर लगता हो। जिसे वो कभी गिन नहीं पाते क्योंकि उस सोने चांदी को गिनने की उनके पास फुर्सत ही नहीं थी। इसलिए वो उन्हें किलो में तोल कर रखते थे। हर घरमे औसतन १०० किलो जितना सोना था।”


, दुसरे अंग्रेज इतिहासकार थे विलियम डिग्बी। जिनका न सिर्फ अंग्रेज पुरा यूरोप और अमेरिका भी इनका सम्मान करता है क्योंकि ये अपनी बात बिना सबूत के कभी नहीं कहते। इन्होने भारत के बारे में एक किताब लिखी है। उसमें कहा है की अंग्रेजों के पहले का भारत सर्वश्रेष्ठ कृषि प्रधान देश ही नहीं सबसे बडा औधोगिक और व्यापारिक देश था। १७ वीं शताब्दी की बात है यह भारत की भूमि इतनी उपजाऊ है जितनी किसी भी देश की नहीं है। भारत के व्यापारी सर्वश्रष्ठ है और भारत कपडा ही नहीं हर उत्पाद विश्व में सबसे अच्छा है। जब भारत के व्यापारी सारे उत्पाद विदेशों में बेचते हैं तो बदले में सोने-चाँदी की माँग करते थे जिसका यह मतलब होता है की भारत के व्यापारी जो भी बेचते बदले में सोना लेते थे। क्यों कि भारतीय वस्तुएं सबसे उत्तम है और इन्हे बनाने का हुनर सिर्फ और सिर्फ भारतीय ही जानते है। जब ये वस्तुएं बाजारो में बिकती है तो सोना और चादी ऐसे प्रवाहित होता है जैसे नदियो में पानी और जैसे नदी महासागर मे समा जाती है उसी तरह ये सोना चादी भारत में समा जाता है। ये सोना भारत में आता तो है पर एक ग्राम भी बाहर नहीं जाता। क्यों कि भारतीय हर वस्तु का उत्पादन कर लेते है, कुछ खरीदने की जरुरत ही नहीं है।" 

३. तीसरे इतिहासकार है फ्रांसीसी फ्रांसवा पिरार्ड। १७११ में भारत के बारे में किताब लिखी। उसमें से कुछ "मेरे अनुसार भारत में ३६ तरह के ऐसे उद्योग चलते हैं जिन्में उत्पादित हर वास्तु विदेशॉ मे जाती है। भारत के सभी उत्पाद सर्वश्रेष्ठ, कलापूर्ण और कीमत में सबसे सस्ते हैं और मुझे जो प्रमाण मिले हैं उनसे पता चलता है कि भारत का निर्यात पिछले ३००० सालों से निर्बाधित रूप से चल रहा है अगर गणना करें तो महात्मा बुद्ध से ६५० साल पहले से व्यापार चल रहा है। "

४. एक और इतिहासकार स्कार्टिस मार्टिन लिखते है कि, जिस समय ब्रिटेन के निवासी बर्बर जंगली जानवरो की तरह जीवन बिताते थे, तब भारत में दुनिया का सबसे बेहतरीन कपडा बनता था और सारी दुनिया में बिकता था। और मुझे यह स्वीकार करने में बिल्कुल शर्म नहीं आती की भारतवासियों ने सारी दुनिया को कपडा बनाना और पहनना सिखाया है रोमन साम्राज्य में जितने भी राजा-रानी हुए वो सब भारत से ही कापडा मंगाते रहें है।"

वैसे देखा जाये तो इससे ही पता चलता है कि भारत कितना संपन्न था और सोने की चिडिया क्यों कहलाता था। 

Monday, September 22, 2014

चीन सुपर पावर क्यों है ये हम क्यों नहीं सोचते???

हम हर बात में कहते है की मेरा भारत महान। हम विश्वगुरु थे, हम फिर से विश्वगुरु बनेंगे। फला ढिका--- हम ऐसे निवेदन आए दिन सुना करते है और अब हाल यह है की हम इन बातो को एक कान से सुनकर दुसरे कान से निकल देते है। ऐसे ही हमारा देश बद हुआ, बद से बदतर हुआ।  लेकिन हम फिर भी कुछ नहीं बोलते, और कुछ हो नहीं पता।

हम हमेशा चीन से आगे निकलने की बात करते है, पर क्या हम मे से किसीने भी कभी यह सोचा है की चीन सुपर पावर क्यों है? शायद नहीं! यह सवाल पढने के बाद भी आप यही सोच रहे होंगे की भाई हम ऐसा क्यों सोचे? कुछ ऐसा ही हाल २००३ में चाइना का भी था।  चाइना का एज्युकेशन लेवल इतना निचे गिर गया था की वहा के प्राइमरी के स्टूडेंट सामान्य गणित की जोड़बाकी भी नहीं कर पा रहे थे और न ही अपनी भाषा पढ़ पाने के काबिल थे।  उस दौरान चीन के शिक्षण मंत्रालय ने प्राइमरी एज्युकेशन सिस्टम में सुधार करने के लिए कुछ १० मुद्दो का एक प्रोग्राम बना डाला और रातोरात इस प्रोग्राम को पुरे देश में अमल में करने के आदेश भी दे दिए गए। इस सुधार के अनुसार प्राथमिक शिक्षण में पहली से छठी कक्षा तक HOMEWORK नहीं दिया जाना था। लेकिन सभी स्कूलों को पेरेंट्स के सहयोग से विभ्भिन म्यूज़ियम, लाइब्रेरीज़ फैक्ट्री जैसी पब्लिक प्लेसेस की मुलाकात करनी थी, और बाद में स्टूडेंट्स को वहा पर जो चीजे देखी और जानी उसको अपने अनुभव से  स्कुल में शिक्षक के सामने लिखना या पढ़ना रहता है। वो भी स्टूडेंट की अपनी भाषा में। 

शिक्षण के दूसरे सुधार में प्राथमिक शिक्षा की परीक्षा पध्धति को ही जड़ से  बदल दिया गया। उन्होंने स्कूल्स में ली जाने वाली पाक्षिक या मासिक परीक्षाओ की संख्या में कटौती करने को कहा। तीसरे मुद्दे में १०० मार्क की मार्किंग सिस्टम के बदले परिणाम चार ग्रेड excellent, good, qualify और will be qualify देने को कहा गया।  जिसका कारण यह है की विद्यार्थी परिणाम से हतोत्साह होकर कही पढाई न छोड़ दे।  भारत में ऐसा किया होता तो सब से पहले यही कहा जाता की शिक्षको का काम कम करने के लिए ऐसा किया गया। :(
इसका सीधा सीधा परिणाम यह आया की जहा २००३ में बच्चे ठीक से पढ़ लिख नहीं पाते थे वहा आज बच्चो में किताबे पढ़ने की रूचि बढ़ती नजर आने लगी है। एक और बदलाव यह किया गया की रोजाना स्कुल में एक घंटा खेलने का और एक घंटा क्राफ्टिंग का दिया जाये।  इससे यह हुआ की प्रायमरी स्कुल से ही बच्चो में इनोवेशन और क्रिएटिविटी बढ़ने लगी। और स्कूलो को विध्यार्थीओ की न सिर्फ शारीरिक बल्कि मानसिक विकास की रिपोर्ट भी सरकार को करनी थी और अधिकारी कभी भी किसी भी स्कूल का सरप्राइज चेकिंग करते है। आखिरकार यह बच्चे ही तो भविष्य मे देश को संभालने और सवारने वाले है। एक और बात को चीन में कानून का रूप देकर लागु किया गया, वो थी ट्यूशन क्लास पर रोक और सख्त सजा। उस कानून में न सिर्फ ट्यूशन क्लास चलाने वालो को पर ट्यूशन क्लास में बच्चो को भेजने वाले पेरेंट्स पर भी क़ानूनी कार्यवाही और सजा हो ऐसा प्रावधान किया गया है। इस कानून की वजह से विद्यार्थियो के अभिभावको ने अपने बच्चो को ट्यूशन क्लास में भेजना बंध किया जिससे ट्यूशन क्लास अपने आप ही बंध हो गए।

चीन की स्कुल के बच्चे टेबलेट पर शिक्षण लेते हुए।  हमारी सरकार सिर्फ भार रहित शिक्षण की बाते करती है। 
गौर तलब बात यह है की यह FIRST CLASS EDUCATION के नाम से चालू हुए इस कार्यक्रम ने चीन के २१वी  सदी के सुपर पावर बनने के सपने को सच करने के रस्ते को खोल दिया।  चीन ने समय समय पर प्रायमरी शिक्षण और कोलोजो पर ऐसे सफल प्रयोग किये। जिसका परिणाम यह हुआ की आज चीन न केवल औद्योगिक, आर्थिक, सामरिक पर शैक्षणिक क्षेत्र में भी सुपर पावर बन के उभरा है। 

इन सब के पीछे एक सबसे महत्व पूर्ण बात यह है की यह सुधारना कार्यक्रम सरकारी कागजातों में न रह कर देश के हर हिस्सों में पहुंचाया गया। जबकि आज तक भारत में बहुत सारे सुधार के कार्यक्रम तो बने लेकिन वो सरकारी फाइलों में दबे रह गए या तो अधिकारिओ के घर भरने के काम में आ गए। भारत में आज एज्युकेशन का सालाना  बिज़नेस कम से कम 1 लाख करोड़ का हैं। आप सोच सकते है की हमारी एक चुप्पी हमें कितनी भारी पड़ती है।  और हम अन्य देशो के मुकाबले कितने पीछे छूट चुके है।

चीन का परिणाम :

इस कार्यक्रम का परिणाम चीन को २००९ में मिला।  PISA/ PROGRAMME FOR INTERNATIONAL STUDENT ASSESSMENT जो की १५ साल की आयु के बच्चो की गणित, विज्ञानं और रिडिंग की परीक्षा लेता है उसमे चीन ने प्रथम स्थान हासिल किया। इस कसौटी में ७४ देशो ने भाग लिया था जिसमे से एक हमारा महान देश भारत भी था।  जहा चीन प्रथम स्थान पर था वही भारत ७३वे स्थान पर था।

हम सपने देखते है, लेकिन उन सपनो को कैसे सच करना यह कोई नहीं सोचता।  हम हमेशा दुसरो के जैसा या उससे बेहतर बनने की सोचते है लेकिन वो वह तक कैसे पंहुचा ये हम कभी नहीं देखते।

।।। जागो हिन्दुस्तानीओ जागो।।। 

Monday, September 8, 2014

अल कायदा: आफ्टर बिन लादेन...

अल कायदा आफ्टर बिन लादेन... 

२०११ से २०१४ तक कैसे कहाँ और क्या किया। 

२ मई २०११ को जब यह समाचार आया की दुनिया के सबसे खतरनाक आतंकी ओसमा बिन लादेन को मार दिया गया है, तो मानो विश्वने शांति की साँस ली हो। उस समय ऐसा लगने लगा था की अब शायद आतंकवाद का चहेरा धुंधला पड़ जायेगा। यह तो जाहिर था की, लादेन के बाद अल कायदा की ताकत को भारी ज़टका लगेगा और शायद इस वजह से अल कायदा फिर कभी सर न उठा पाए. और लगभग हुआ भी ऐसे ही। करीब करीब २ साल तक अल कायदा की कोई भी गतिविधि देखी नहीं गई। अब माना जा रहा था की अल कायदा नहीं रहा।

लेकिन २०१३ में फिर से एक बार अल कायदा परदे पर आया, अपने नए आका के साथ। आयमान अल जवाहरी, जो बिन लादेन के साथ कई विडिओ में दिखा था स्वाभाविक तौर पे उसने अब अल कायदा की कमान को संभाला था। जवाहरी पेशे से एक आई सर्जन है, लेकिन लोको के जीवन में उजाला लाने के बदले उसे अँधेरा फैलाने में ज्यदा मजा आता है। जवाहरी के हाथ में कमान आने के बाद उसके सामने सामने सब से बड़ी चुनौती यह थी की उसको अल कायदा के पुराने कोंटेक्ट को जोड़ना था साथ ही साथ उसे ओसामा बिन लादेन की आतंकियो में रही लोकप्रियता और करिश्मा से भी लड़ना था, अपनी अलग से पहेचान बनानी थी.

मई २०१३ में ही अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा की अल कायदा बस अब हार की कगार पर है। लेकिन ३ महीने बाद ही अमेरिकाकी सिक्युरिटी एजेंसी ने मिडल ईस्ट में नए अल कायदा चीफ जवाहरी और यमन के अल कायदा चीफ नासिर अल हुवैशी के बिच की बातचीत को इंटरसेप्ट किया। जिसके चलते अमेरिका ने मिडल ईस्ट में अपने १९ दूतावासों को बंध करने पड़े।  इस तरह से मिडल ईस्ट में अल कायदा फिर से फलक पर दिखाई दिया। लेकिन यह तो अल कायदा की एक मात्र जलक देखने को मिली थी। जवाहरी और हुवैशी की बातचीत को इंटरसेप्ट करने पर अमेरिका को यह लगा की जवाहरी में लादेन जितनी काबलियत नहीं है।

हांलाकि ओसामा बिन लादेन के मरने के बाद अल कायदा आतंकी ओ की दुनिया में अपनी साख खो चूका था, लेकिन इसके वफादारो की आज भी उनको कोई कमी नहीं थी। जिहाद के नाम पर आतंक फ़ैलाने वाले ये कट्टर आतंक के सौदागर फिर से एक बार दुनिया को हिलाने को तैयार थे। दूसरी तरफ जवाहरी को भी लादेन के बाद अपनी साख कायम करनी थी। भले ही अमेरिका ने जवाहरी और हुवैशी की बातचीत को इंटरसेप्ट किया हो और कोई बड़ी घटना को अंजाम देने से इन दोनों को रोका हो, लेकिन फिर भी अमेरिका जवाहरी को ट्रेस नहीं कर सका।  एक बार फिर जवाहरी हवा हो गया.

बिन लादेन और जवाहरी में सबसे बड़ा फर्क यह है की ओसामा बिन लादेन अपने संदेशो को किसी मीडिएटर के जरिये दुनिया में जरी करता था। लेकिन जवाहरी ने रियल टाइम में हुवैसी से बातचीत की जिससे तुरंत इन दोनों की बातचीत नजर में आ गई। लेकिन जवाहरी यह जनता था की भले ही लादेन कोई पुराणी बात नहीं हो गई फिर भी उसके तरीके अब पुराने हो चले है। कोम्युनिकेशन के ज़माने में जो ज्यादा दीखता है वही ज्यादा बिकता है। इसीलिए उसने रियल टाइम कन्वर्ज़ेशन को अपनी मौजूदगी जताने के लिए पसंद किया। लेकिन इसके बाद फिर लगभग एक साल तक अल कायदा खामोश रहा। भले ही अल कायदा ने मिडल ईस्ट में हो रहे बदलाव में बहोत अहम् भूमिका निभाई थी।  पता नहीं क्यों लेकिन मिडल इस्ट में हो रही राजकीय बदलाव की गतिविधियो में विश्लेषको को आतंकी संगठनो का कोई हाथ क्यों नज़र नहीं आया। पर यह बिलकुल साफ है की आतंकी भी समय के साथ अपने तौर तरीके बदल रहे है।  और अल कायदा के नए आका इन बदलाव को भारत में अपनाने की कोशिश कर रहे है।  

Tuesday, September 2, 2014

First nation which have Japanese defense technology


जापान ने भारत के लिए ७० साल पुरानी परंपरा तोड़ी। 

हिंदुस्तान में नयी सरकार के आने के साथ ही भारत के अंतरराष्ट्रीय संबंधो में जो में जो विकास हुआ है वो काबिले तारीफ है।  पहले नेपाल के साथ अपने बिगड़ते हुए संबंधो को संभाला तो दूसरी और ५ महासत्ता में शुमार जापान के साथ संबंधो की जो कड़ी सुभाषचन्द्र बॉस के साथ टूटी थी उसे वापस मजबूती से जोड़ने का प्रयास। मोदी के जापान प्रवास से ये प्रयास इतना सफल रहा की भारत के लिए जापान ने अपने ७० साल पुरानी पाबंदी हटा ली।

सोमवार को पीएम नरेंद्र मोदी और जापानी पीएम शिंजो एबे के बीच तोक्यो में हुई शिखर वार्ता में एयरक्राफ्ट टेक्नोलॉजी के क्षेत्रमे भारत को मदद करने के मुद्दे पर चर्चा हुई। जिसके चलते जापान के प्रधानमंत्रीने भारत को समुद्र में उतरने की क्षमता रखने वाले एम्फीबियस एयरक्राफ्ट यूएस-२ की डील लिए हामी भर दी। शिखर वार्ता के बाद जारी किए गए संयुक्त बयान में कहा गया कि भारत के साथ जापानी एयरक्राफ्ट और जापानी तकनीक साझा करने के तहत यूएस-2 एम्फीबियस एयरक्राफ्ट की डील साइन की गई है। इसके जरिए भारतीय एयरक्राफ्ट उद्योग के विकास के लिए एक रोड मैप तैयार किया जा सकेगा। मोदी सरकार की नीतियों को ध्यान में रखते हुए ये प्लेन भारत में तैयार किए जाएंगे।

यह डील इसलिए भी बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इस डील के साथ ही भारतीय नौसेना की क्षमता में और इजाफा हो गया।  भारतीय नौ सेना के लिए यूएस-2 सबसे मजबूत विमानों में से एक है। 30-38 किलोमीटर प्रति घंटे की विंड स्पीड पर इसे समुद्र के साथ-साथ नदियों और झीलों पर भी ऑपरेट किया जा सकता है। 30 लोगों और 18 टन भार के साथ यह एक बार में 4,500 किलोमीटर तक की उड़ान भर सकता है। जिससे अरुणाचल और बंगाल की खाई में बढ़ती जा रही गतिविधियों पर रोक लगाने में मदद मिलेगी।

गौर तलब है की जापान ने 7 दशक पहले द्वितीय विश्वयुद्ध में अपनी हार के बाद जापान ने हथियार और सैन्य उपकरण बेचने पर पाबंदी लगा दी थी। इसलिए यह डील भारत और जापान के रिश्तों की मजबूती का भी संकेत है। दोनों ही देश हर तरह से और खास तौर से रक्षा और व्यापार के क्षेत्र में एक-दूसरे को पूरा सहयोग कर रहे हैं ताकि चीन की विस्तारवादी नीति और उसके दिन-प्रतिदिन बढ़ते आक्रामक रवैये को चुनौती दी जा सकेगी।

अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धो में क्या महत्व है इस डील का?

इस डील के साथ ही अंतरराष्ट्रीय संबंधो और नीतियों का एक नया दौर चालू  हुआ है। चीन के विरुद्ध भारत का पक्ष अब और मजबूत बन जायेगा। भारत और चीन के बीच सीमाओ को लेकर तंगदिली चल रही है। वैसे ही जापान और चीन की भी एक टापू सेनकाकू को लेकर विवाद चल रहा है। इस विवाद के चलते अमेरिका ने इस विवाद में जापान का साथ देने का वादा किया है। अब भारत और जापान के बीच इस डील की वजह से भारत और जापान संबंध तो मजबूत हुए ही है साथ साथ अमेरिका के साथ भी संबंध और मजबूत होंगे।